किसी अबोध का दुख, मेरी कलम द्वारा


एक रोज ऐसे ही मन किया दोस्तो के साथ बाहर जा कर कुछ खा कर आऊॅं थोडा मुंह का स्वाद बदल जाएगा। हम सब पास की ही एक दुकान में चले गए, वहां जा कर बैठे। जिस मेज पर ‍हम बैठे थे वह गंदी थी, मेरी एक दोस्त ने उसे साफ करने के लिए दुकानदार से कहा। तभी वहां पर एक छोटा सा बच्चा जो कि बमुश्किल दस साल का रहा होगा, आया और एक कपडा ले कर उस मेज को साफ कर दिया।
मैं यह देख कर दंग रह गई कि आज, इस जागरूकता के ‍दौर में जहां हर मंत्री बाल शिक्षा के दावे करता है वहीं पर सरे आम हम हर दूसरी दुकान ,ढाबे व होटल पर छोटे-छोटे बच्चों को काम करते हुए आसानी से देख सकते हैं। वह भी तब, जब उन दुकानों के ग्राहक पढे लिखे घरों के होते हैं। खुद को पढा लिखा कहने वाले उन ग्राहकों को क्या नहीं दिखता कि यह जो कुछ भी हो रहा है वह सरासर गलत हो रहा है? जिस उम्र के उनके बच्चे हैं ‍जिन्हे वे बस खेलते देखना ही पसंद करते हैं उसी उम्र के दूसरे बच्चे उन्ही के सामने जब गंदे बर्तन व मेजे साफ करते हैं, तो क्या उन्हे नहीं लगता कि कुछ करना चाहिये? क्या उनका दिल नहीं पसीजता? क्या वे इसके खिलाफ आवाज नहीं उठा सकते?
मैं उन लोगों को क्यों दोष दे रहीं हूं जब मैं खुद कुछ नहीं कर पाई बजाए इसके कि हाथ पे हाथ रख के जो कुछ भी हो रहा है वो चुप चाप बैठ कर देखूं। अभी मैं कुछ भी नहीं हूं, लेकिन इतना तो तय है की जिस दिन मैं अपने पैरों पर खडी हो जाऊंगी, अपनी एक पहचान बना लूंगी उस दिन मैं इन के लिए कुछ ऐसे काम करूंगी जिससे इनका भविष्य बेहतर हो सके। अभी शायद मेरे पास शब्दों के अलावा और कुछ भी नहीं है जिन्हे मैं इंटरनेट के सहारे सब तक पहुंचाना चाहती हूं। उन बच्चों को देख कर मेरा दिल पसीजता है क्योंकि शायद ये मान्यता कि बच्चे ईश्वर का रूप होते हैं आज भी मेरे दिल में बसी हुई है।

Comments

Popular Posts