समाज कच्ची मिट्टी है और शिक्षक है कुम्हार



                 ...तस्मैं श्री गुरवे नम:
यह श्लोक मैं बचपन से सुनती आ ‍रहीं हूं। हर गुरू दिवस पर मैं अपने विद्या के मन्दिर में अपनी कुछ सहेलियों के साथ इस श्लोक को स्टेज पे सुना कर अपने गुरुओं को सम्मान अर्पित करती थी। उस वक्त शायद बच्ची होने के चलते इस श्लोक का अर्थ समझने में मैं असमर्थ थी, लेकिन वे गुरू थे तो देवस्वरूप ही। उनका प्रेम और परिश्रम देख कर मैं आज भी रोमांचित हो उठती हूं। सच ‍कहूं तो इन शब्दों में से जो मर्म निकलता है उसका प्रत्यक्ष दर्शन आज के ‍समय में कम से कम मेरे साथ होना तो असम्भव है। कारण, आज ‍के विद्यार्थियों व गुरूओं का एकदूसरे के प्रति नज़रिया, कहने की ज़रूरत नहीं कि अब वे सम्बन्ध तनिक भी नहीं रह गए। रिश्ते तो औपचारिकता से भी ज्यादा औपचारिक दिखते हैं।
दरअसल आज गुरू शिष्यों के सम्बन्ध की परिभाषा ही उलट गई है। प्राचीन युग में जहां शिष्य अपना संसार अपने गुरूओं के चरणों में ढ़ूढ़ते थे, वहीं आज अगर कोई मास्टर बच्चे को तमाचा भर दिखा दे तो बच्चे उनसे एसे बर्ताव करेंगें कि रोंगटे खड़े हो जाए। ऐसे में असमंजस पैदा हो जाता है कि आखिर दोनों में गुरू कौन है।
छात्र जीवन में हुई एक घटना की मैं खुद गवाह हूं। गणित के शिक्षक ने पढ़ाते वक्त एक लड़की को खड़ा कर दिया क्योंकि वह शोर कर रही थी। इसे उनका सबसे बड़ा अपराध साबित करने के लिए उस लड़की ने उनसे इतना बुरा व्यवहार किया कि वह चलती क्लास को छोड़ कर चले गए और स्टाफरूम में जा कर फफक-फफक कर रोने लगे। क्या यह घटना यह सवाल नहीं पूछती है कि जो आदर के किस्से हम अपने माता, पिता और बाबा के ज़ुबान से सुनते थे, वह आदर सम्मान आखिर अब गया कहां। समाज से ही छात्र आते हैं समाज से ही शिक्षक। लेकिन इसके बावजूद हाल की घटनाएं साबित कर चुकी हैं कि समाज में बदलाव का दायित्व केवल शिक्षक पर ही निर्भर होगा कि उसके छात्रों का व्यवहार क्या हो। ताजा उदाहरण के तौर पर हमारे पास हैं अण्णा हजारे और एपीजे कलाम, जिनकी एक आवाज़ पर पूरा देश उठ खड़ा होने को तैयार है। इसके पहले भी जयप्रकाश नारायण व महात्मा गांधी जैसे लोगों पर देशवासी मर मिटने को तैयार थे। ज़ाहिर है, यह शिक्षक पर निर्भर है कि उसे कैसा समाज बनाना है, आदर्श या अराजक।
लखनऊ मेडिकल विश्वविद्यालय में लगी एक तस्वीर जिसमें धोती से लिपटे घुटने और एक छड़ी उनके महात्मा गांधी होने का एहसास कराती है, के नीचे लिखा हुआ है कि :- आने वाली पीढ़ीयां शायद ही यह विश्वास कर पाएंगी कि इस देश में ऐसा भी महान शिक्षक हुआ है।
कुछ भी हो, समाज में नैतिक जि़म्मेदारी केवल शिक्षक की ही होती है। समाज तो कच्ची मिट्टी है और शिक्षक कुम्हार। तो अब यह शिक्षकों को तय करना है कि वे इतिहास गर्त में खोना चाहते हैं या भविष्य के आकाश में ध्रुव या अगस्तय की तरह समाज का मार्गदर्शक बनना चाहते हैं। ठीक वैसे ही जैसे कुतुबनुमा, कुछ भी हो, वह अपने नियमों से नहीं डिगता।












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