धर्म हैं, पथ हैं, जीवन-दर्शन हैं कलाम
कलाम व्यक्ति
नहीं, विचार हैं। धर्म
होता है कलाम। नीति का नाम होता है कलाम। जीवन-दर्शन का प्रतीक होता है कलाम।
जिजीविषा में जो गूदा होता है, वही कलाम कहलाता है। जो हम सब में मौजूद होते हैं। जरूरत यह है कि हम खुद में
कलामों को खोजें। उन्हें पुष्पित-पल्वित करें, और कोशिश करें कि आने वाली पीढियों
में उगने वाले कलामों को खाद-पानी मिलता ही रहे।
अपने जीवन काल
में कलाम छात्रों के बीच ही घिरे रहना पसंद करते थे। किसी संस्था का उद्घाटन
समारोह का बुलावा भले ही न स्वीकारें, विद्यार्थियों के पुकारने पर बड़े चाव से चले
जाते थे। लेक्चर, सेमिनार,
दीक्षांत में मंच संभालना उनको पसंद था। कारण वही, कि प्रिय बच्चों के बीच
में जाकर कहे गए अनेक शब्दों में अगर दो शब्द भी आत्मसात कर लें तो हर गली, हर
मुहल्ले में एक कलाम उठ खड़ा होगा। ऐसे थे हमारे कलाम। लोभ, राजनीति, आरोप-प्रत्यारोप
से परे, जिन्होंने एक सफल भारत का सपना देखा था। ऐसी विभूति की मत्यु अगर
छात्रों के बीच ही हुई तो मेरी समझ में जैसे उनकी आखिरी ख्वाहिश पूरी हो गई। 83
साल के नवयुवक थे कलाम, बुजुर्ग तो बिलकुल भी नहीं थे, और सबसे बड़ी बात कि इतने भले
चंगे थे कि चलने के लिए किसी की सहायता भी नहीं लेनी पड़ी। उन्होंने तो अपने जीवन
में सारे काम कर लिए लेकिन हमारे लिए तो उनका जाना जैसे देश का विधवा हो जाना। कहने
की जरूरत नहीं कि भारत के लिए यह बहुत बड़ी क्षति है।
खैर, मैं उन
खुशकिस्मतों में से एक हूं जिसे उनसे मिलने का सौभाग्य एक नहीं बल्कि दो-दो बार प्राप्त
हो चुका है। एक पुस्तक मेले के उद्घाटन पर और दूसरा साहित्यिक मेले में। अभी
पिछले ही साल की बात है। एक लिटरेचर फेस्टिवल में उनका लखनऊ आना हुआ था। इंदिरा
गांधी प्रतिष्ठान में खचाखच भीड़ थी, करीब पांच स्कूल के बच्चे वहां उपस्थित
थे। मंच पर आते ही कलाम साहब ने मीठी सी मुस्कान के साथ कहा, कि कई दिनों से आराम
करने की फुर्सत नहीं मिली, आज सुबह तड़के ही निकलना पड़ा। यहां-वहां के काम
निपटाने के बाद सीधे लखनऊ रवाना हो गया। लेकिन बच्चों को देखते ही मैं तरोताजा हो
जाता हूं। सारी थकान जाने कहां चली जाती है।
ऐसा केवल कलाम साहब
ही कह सकते थे, उनकी तो पूरी जिंदगी ही बच्चों को समर्पित थी। वह जहां से उठे थे
जीवन भर उसी धरती पर ही टिके रहे। चमक-धमक उनपर कभी हावी नहीं होने पाई। कार्यकाल
पूरा होने पर राष्ट्रपति भवन से केवल अपने कपड़े लेकर ही निकले थे। पूछने पर बताया
कि यह शील्ड और प्रतीकचिह्न तो देश के राष्ट्रपति को मिला था, मुझे नहीं।
मेरे पिता जी बताते
हैं कि बात सन 2005 की है। पिताजी दैनिक हिनदुस्तान संस्करण में कार्यरत था।
वाराणसी हिन्दू विश्वविद्यालय का वार्षिेकोत्सव प्रारम्भ शुरू हो चुका था।
सैकड़ों शिक्षकों की लयबद्ध सर्पीली दोहरी कतार-लकीर की तरह धीरे-धीरे आगे बढ रहे
थे। वह इसके महान आयोजन के क्षण-क्षण को देख-सहेट करने में तत्पर थे।
सब की निगाहें
केवल मुख्य अतिथि को ही खोज रही थीं। अचानक सीढियों पर चढ़ते कलाम दिख गये।
जबर्दस्त शोर का बगुला सा उठा।
पदक वितरित करने
का वक्त आ गया। पहली पाली में सर्वश्रेष्ठ तीन शिक्षार्थियों को मंच पर बुलाया
गया। इनमें पहला नाम था एक छात्रा का। कलाम ने उसे उसकी श्रेष्ठता का प्रमाण-पत्र
और पदक थमाना चाहा, तो अचानक एक गजब हादसा-सा हो गया। इसके पहले कि
कोई कुछ समझ पाये, वह बच्ची लपकी और सीधे कलाम के गले लग गयी।
प्रगाढ आलिंगन।
पूरा पाण्डाल स्तब्ध।
उपस्थित सारे लोग
सकपका गये।
लेकिन कलाम बेहद
शांत थे। वह बच्ची कलाम को चूम रही थी, और कलाम सहज थे।
बाद में उस बच्ची
का ज्वार उतरा। सफलता की दमक उसके चेहरे पर साफ चमक रही थी।
मगर कलाम कुछ
नहीं बोले। नि:शब्द।
वह बच्ची ही
बोली:- "दरअसल मैं अपनी आंटी के लिए राष्ट्रपति महोदय को चूमना चाहती
थी।"
और इसीलिए अपने
आवेगों को रोक नहीं पायी।
अब बारी थी कलाम
जी की। बोले:-
"माता जी को
भी मेरा स्नेह दे दीजिएगा।"
विजन 20-20 का
सपना संजोने वाले कलाम अब हमारे बीच नहीं रहे। करोड़ों आंखों में अश्रु छोड़ कर वह
चले गए। लेकिन हां, दे गए तो प्रेरणा, जिजीविषा और कुछ कर गुजरने का जज्बा भी। साथ
ही अपना काम करते हुए विवादित न रहने की तरकीब भी सुझा गए, यानी एक सरल शख्सियत। देखना
यह है कि हमारे राजनेता, जो
उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए उमड़-घुमड़ रहे हैं, उनके ख्वांब को पूरा करने के लिए कितने व्याकुल
हैं। आखिर उन्हीं का तो दायित्व है विजन 20-20 को बरकरार रखना। उन्हें सच्ची
श्रद्धांजलि यही होगी कि हमारे नीति-नियंता उनके सपने का भारत बनाने के लिए
प्रतिबद्ध हों। डॉ.कलाम, यह राष्ट्र सदैव आपका ऋणी रहेगा।
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